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घनानंद - प्रेम के पीर (कवि)

 घनानंद - प्रेम के पीर (कवि) - प्रेम की व्यंजना 


घनानंद  रीतीमुक्त काव्य धारा के श्रृंगारी कवि हैं। कवि घनानंद के जन्म समय का कोई प्रमाणित तथ्य नहीं प्राप्त है।
अनुमानत: इनका जन्म समय 1730 के आसपास माना गया है। घनानंद जी का मूल नाम हिंदी आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार आनंदघन है। लेकिन छंदात्मक लय विधान के कारण यह स्वत: ही घनानंद हो गए या स्वयं घनानंद जी ने अपना नाम  आनंदघन  से घनानंद रख लिया हो। साहित्य और संगीत दोनों में इन्हें महारत हासिल थी।
घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 41 बताई गई है।

 घनानंद मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला के दरबार में मुंशी मीर थे यही इनका प्रेम दरबारी नर्तकी सुजान से हुआ सुजान वास्तव में अनुपम सुंदर से युक्त थी। दरबारियों द्वारा मुंशी मीर की तारीफ करते हुए बादशाह से कहा की वो बहुत अच्छा गाते हैं। मोहम्मद शाह ने उन्हें अपने दरबार में बुलाकर गाने का हुकुम सुनाया। घनानंद बादशाह की ओर अपनी पीठ करके बैठ गये और गाने लगे। बादशाह मोहम्मद शाह ने इसे अपना अपमान समझ देश निकाला का हुकुम सुनाया।  घनानंद ने सुजान से राज-वैभव छोड़ अपने साथ चलने को कहा। सुजान के साथ जाने से मना करने पर घनानंद के हृदय को गहरा आघात पहुंचा और उन पर भी वियोग का वज्रपात टूट पड़ा। वे सुजान कि इस निर्ममता को सहन नहीं कर पाए और दिल्ली छोड़कर वृंदावन आ गए उस निष्ठुर रूपसी के रूप का साक्षात्कार न कर पाने से विकल बने रहे। घनानंद जी की यही व्याकुलता ही उनके काव्य में प्रकट हुई।

  रीतिकालीन कवियों द्वारा प्रतिपादित प्रेम वासना लिप्त था वसुधा अनुभूति परक नहीं था उसमें केवल बाहरी सौंदर्य को ही देखा गया था आंतरिक सौंदर्य की और ध्यान ही नहीं दिया गया था। लेकिन स्वच्छंद मार्गी कवियों ने हृदय की आंखों से अपने प्रेमी या प्रिय को देखा और कहा कि प्रेम में आंतरिक सौंदर्य का बहुत महत्व है  बाहरी सौंदर्य  का कोई मूल्य नहीं है। घनानंद एक प्रेमी थे, सुजान से उनका सच्चा प्रेम था। सुजान उनके हृदय में गहरी बसी हुई थी, उसे भूल नहीं सकते थे इसलिए घनानंद जी के काव्य में हृदय की गहरी बेदना और टीस का स्वर है। सुजान को ना देख पाने का बहुत दर्द उनके अंदर था। उनका हृदय सदा चाह के रंग में भीगा रहता था -
" चाह के रंग में भी भिज्यो हियो "
 वह हृदय की आंखों से नेह की पीर तकने वाले कवि थे, प्रेम जनित उत्पन्न  घोर पीड़ा का वह स्वयं अनुभव कर चुके थे।
 घनानंद के काव्य की प्रेम व्यंजना कुछ इस तरह थी -

  विशुद्ध प्रेम - घनानंद का प्रेम बहुत ही सीधा सरल और स्पष्ट है उसने वासना की जरा भी गंध नहीं, रतिचित्रण आदि की बात थी बहुत दूर है। घनानंद का प्रेम नर्तकी सुजान से था। इनका प्रेम पहले लौकिक रहा बाद में अलौकिक बन गया और ईश्वर की ओर उन्मुख हो गया।  यह उनके काव्य में स्वतः प्रकट होता है।  उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वह एक न एक दिन अपने प्रिय सुजान से अवश्य मिलेंगे -
मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।
डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।।

 इस छंद में  में घनानंद जी कहते हैं कि प्रिय सुजान तुम क्यों इस प्रकार का मेरे साथ अनीति कर रही हो। पहले अपने रूप से मुझे मोहित करके अब इतनी निष्ठुर मत बनो। मेरे नेत्रों के लिए आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा नहीं है। मेरे नेत्र आपके सौंदर्य में मंत्रमुग्ध है। मुझे विश्वास है कि मेरे नेत्रों को आपका दर्शन होगा। इसी विश्वास पर मेरे प्राणरूपी यात्री मेरे शरीर में अब तक टिके हुए हैं। नहीं तो यह कब के निकल गए होते। आप तो आनंदघन हो जीवन का आधार जल। फिर यह दुष्ट देव क्यों प्यासा मुझे मार रहा है। आप अपना प्रेम जल बरसाकर मुझ प्यासे प्राण बटोही की रक्षा करो।

 जबसे उन्होंने प्रिय को देखा है तब से वह उसे पुनः देखने को लालायित हैं, यह प्रेम-भावना उनके इस छंद में प्रकट होती है -
 "जब ते निहारे घन आनंद सुजान प्यारे
  तब ते अनोखी आगि लागि रही चाह की "
 इस छंद में घनानंद जी कहते हैं कि - जब से उन्होंने प्रिय  सुजान को देखा है। तबसे उनके अंदर एक अनोखी आग लगी हुई है, उन्हें फिर से देखने को मन लालायित है।

 प्रेम के पीर में भींगे घनानंद के हृदय की करुणाजनक स्थिति इन छंदों में अवलोकित  होती है -
 "पर काजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ हवै दरसो।
निधि -नीर सुधा की समान करौ सबही विधि सज्जनता सरसौ।।
घन आनंद जीवन दायक हौ, कछु मेरी हू पीर हिये परसौ।
कबहुं वा बिसासी सुजान के आंगन, मौ अँसुवान को ले बरसौ।। "

 इस पंक्ति का अर्थ है की -
 घनानंद जी कहते हैं जैसे बादल दूसरों के हित के लिए बादल शरीर रूप धारण करके जल को अमृत समान बनाकर एक एक बूंद समर्पित कर देता है। वह बादल रूपी देह का निर्माण सिर्फ कल्याण और परोपकार के लिए करके अपनी सज्जनता का परिचय देता है। घनानंद बादल से कहते हैं = हे बादल मेरी पीड़ा हर कर मुझे भी जीवनदान दो और मेरी व्यथा के आंसुओं को बादल का रूप धारण कर मेरी पेशी सुजान के आंगन में बरसा कर उसे भिगो दो।


 अन्यन प्रेम की पराकाष्ठा -
 प्रेम की परिपक्वास्था मैं ही प्रेम में अनन्यता उत्पन्न होती है। घनानंद सुजान के उपासक थे वह देवी के रूप में या भगवान के रूप में उनके लिए सब कुछ थी। वे उसे प्रेम और प्राणों का आधार मानते थे यदि वह रूठ जाए तो क्या होगा घनानंद कहते हैं -

नेह-निधि-प्यारे गुन-भारे हवै न रूखे हूजे,
ऐ सौ तुम करौ तौ विचारन के कौन है।

 घनानंद प्रेम की अनन्यता के बारे में स्वयं लिखते हैं कि   -
" घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहां एक
तें दुसरो आंक नहीं "।

अर्थात् - प्रेम में दो की पहचान अलग-अलग नहीं रहती है बल्कि एक रूप में स्थित हो जाती है।
 हे सुजान मेरे प्रेम में तुम्हारे सिवा कोई दूसरा जीने नहीं है मेरे हृदय में सिर्फ तुम्हारा ही चित्र है।

 घनानंद के प्रेमानन्यता की कितनी उज्जवल है जो इस छंद में दिखाई पड़ती है -

"चाहों अनचाहों जान प्यारे पै अनंद घन
प्रीति-रीति विषम सु रोम-रोम रमी है 
 मोहि तुम एक, तुम्हें मो सम अनेक आहिँ,
कहा कछु चंदहि चकोरिन की कमी है "।

अर्थात् -
 घनानंद जी कहते हैं कि हे प्रिय तुम मुझसे प्रेम करो या ना करो परंतु मेरे रोम-रोम में तुम्हारे प्रेम ही छाया है। तुम्हारे प्रेम में मैंने एक पक्षीय प्रेम पद्धति को अपना लिया है। चंद्रमा को चकोरों की कमी नहीं है, तुम्हारे लिए मेरे जैसे चाहने वाले अनेक हैं  पर मेरे लिए तो तुम ही एकमात्र प्रेम हो।

 घनानंद के प्रेम में भावात्मकता -
 घनानंद जी के प्रेम में गहरी भावनात्मक का दर्शन होता है ऐंद्रीयता का नहीं। उनके प्रेम में सच्ची अनुभूतियों की प्रधानता है और वही उनके काव्य में दिखाई देता है। उनका प्रिय सदा उनके हृदय स्थल में निवास करता है,संयोग हो या वियोग हो
 प्रेम की उपस्थिति सदा बनी रहती है। 
 इन पंक्तियों पर दृष्टि रखिए -

1 'अन्तर में वासी पै प्रवासी का सो अन्तर है
 मेरी नं सुनत दैया आपनीयौ ना कहौ।'

2 'कन्त रमै उर अन्तर में सुलहै, नहीं क्यों सुखरासि निरन्तर।'

 वास्तव में घनानंद का प्रेम बुद्धि से प्रेरित नहीं होकर के हृदय से प्रेरित है। उनके प्रेम में केवल हृदय का योग है बुद्धि की प्रेरणा नहीं है। बुद्धि में तर्क-वितर्क, सोच-विचार, विश्लेषण आदि सब कुछ होता है लेकिन हृदय में होती है निश्चलता, सरलता और प्रेम। इसलिए घनानंद जी कहते हैं  -

अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥
अर्थात् 
प्रेम का मार्ग अत्यंत सरल है इसमें कहीं भी बाप पर नहीं अर्थात चतुराई या सयानापन नहीं होता। इसमें सच्चे प्रेमी ही चलते हैं। जो कपटी है कुटिल है उन्हें इस मार्ग पर चलने में झिझक होती है।

 घनानंद के प्रथम दर्शन का प्रेम -
 घनानंद जी का प्रेम वासनापरक से प्रेरित नहीं है बल्कि वह प्रथम दर्शन से उत्पन्न प्रेम है। घनानंद जी का यह प्रेम वासना से रहित और निष्काम प्रेम का और अप्रीतम उदाहरण है। जबसे घनानंद जी ने सुजान को देखा है तब से उस की चाह  में उसके दीवाने हो गए और उसकी दशा किस तरह हो गई है वह इस पद में देखिये -
"खोय दई बुधि, सोच गई सुधि, रोय हँसे उन्माद जाग्यौ है।
सोचनि ही सचिये घन आनंद हेत पग्यौ किधौं प्रेत लग्यौ है।।"

अर्थात् -
  प्रेमवेश के कारण भूतावेश जैसी स्थिति हो जाती है। जैसे भूत लगने पर आदमी की अवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है उसी प्रकार  प्रेमावस्था में बुद्धि खो गई,यादाश्त खो गया, कभी हंसना कभी रोना आता है कभी तो कभी रोते हुए हंसना। मानो कोई उनके अंदर उन्माद जगा हुआ है। कभी चुप्पी होती है तो कभी इधर उधर देखा जाता है तो कभी कुछ कहने का मन होता है या भीतर कोई आग सुलग रहा होता है।  लगता है उसे प्रेत की बीमारी है या प्रेम लग गया है।

 इतना सुंदर वर्णन एक पद के माध्यम से कहना घनानंद के काव्य में ही दिखता है। सच ही तो है ना जिसने प्रेम किया होगा वही इस पीड़ा को समझ पाएगा।


घनानंद के प्रेम का अलौकिक से अलौकिक होना -

 घनानंद जी का प्रेम शुरुआत में लौकिक था, लेकिन सुजान के परित्याग के बाद से यह अलौकिक से अलौकिक बन गया। घनानंद जी के लिए सुजान एकमात्र नर्तकी ना रहकर इनकी उपासना की देवी बन गई। इनके प्रेम में आंतरिक सौंदर्य के रहस्यमय  में संकेत प्राप्त होते हैं उन्होंने अपने प्रिय सुजान के लिए  ' आनंदघन ' सुजान शब्दों का पद में प्रयोग किया है। जो उनके लिये सुजान आनंदमयता और सर्वज्ञता है, की ओर इंगित करते हैं। घनानंद जी कहते हैं कि वह और उनका प्रिय एक ही स्थान पर पास ही पास रहते हैं मगर यह दूसरी बात है कि उनसे इनकी मुलाकात नहीं हो पाती। प्रेम का यह कितना अद्भुत रूप है प्रेम हमें इस अवस्था में लौकिक से अलौकिक अवस्था में लेकर चला जाता है। प्रेम का यह सुंदर चित्रण वही समझ पाएगा जिसने प्रेम किया हो।
 घनानंद जी के इस पद में देखें -

" एक बास बसे सदा बालम विसासी पै न
 भई क्यों चिहनारी कहूँ हमें तुम्हें हाय हाय। "


 प्रेम के प्रति वेदना का संचार -  घनानंद जी के काव्य में प्रेम की पीड़ा की अद्भुत अनुभूति की प्राप्ति होती है। घनानंद जी का हृदय प्रेम की घोर वेदना से भरा हुआ है। इनके काव्य में एक प्रकार का मौन भी है, खामोशी भी है जो बहुत कुछ अव्यक्त सा है। घनानंद की प्रेम की वेदना इतनी तीव्र है कि यह उनके इस पद में वेदना के दृश्य अंकित करता है।
इस पद में देखिये -

'नीर न्यारे मीन औ चकोर चंदहीन हूँ ते
अति ही अधीन दीन गति मति पैखियै।'

अर्थात् -
  मीन को जल से वियुक्त होने पर और चकोर को चंद्रमा से बिछड़ जाने पर भी इतनी वेदना नहीं होती होगी जितनी घनानंद जी ने सुजान से विमुक्त होकर अनुभव की है।

“हमें मरिबो बिसराम गनै वह तौ, बापुरो मीच तज्यौ तरसै।
वह रूप छठा न सहारि सकै, यह तेज तवै चितवै बरसे।
घनआनंद कौन अनोखी दसा, मति आवरी बावरी ह्वै थरसै।
बिछुरे-मिले मीन-पतंग-दसा खा जो जिय की गति को परसै।।”

घनानंद जी विरह मिलन की चरम दशा का आदर्श
'बिच्छूरीन मीन की औ मिलनि पतंगा की 'नहीं मानते क्योंकि दोनों मर मिटते हैं - मछली जल से बिछड़ जाने पर और पतंग प्रिय दीपक से मिल जाने पर। घनआनंद का प्रेम दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है। उनकी दृष्टि से प्रेम की चरम दशा तो जीवित होकर के प्रिया के वियोग में अनेक प्रकार के अंतःपीड़ा को सहने में है।
 सत्य ही तो है जिसने वियोग को सहा नहीं वह प्रेम की पीड़ा क्या जाने प्रेम तो वियोग में ही प्रगट होकर आता है।

विरह की एक और दशा का वर्णन देखिये -

सोएँ न सोयबो जागें न जाग, अनोखियै लाग सु आँखिन लागी। 
देखत फूल पै भूल भरो यह सूल रहै नित ही चित्त जागी। 
चेटक जान सजीवनि मूरति रूप-अनूप महारस पागी। 
कौन बियोग-दसा घनआनँद मो मति-संग रहै अति खागी॥

अर्थात् -

 एक ऐसी विलक्षण स्थिति है कि सोने पर भी सोया नहीं जाता जागने पर भी ज्यादा नहीं जाता इन आंखों में ऐसी लाग लगी है कि ना आ जाता है ना जगा जाता है। स्थिति ऐसी है कि जब प्रिय दिखाई पड़ती है तब तो प्रसन्नता रहती है, जब प्रिय दिखाई नहीं देती है तब खिन्नता ही चित्त में महसूस होती है। प्रिय की जो मूर्ति आंखों से नहीं दिखती है वह कहीं नहीं गई। वह मायवी जीवदायिनी मूर्ति जो अनुपम सौंदर्ययुक्त, आनंद रस से भरी है, मेरी बुद्धि के साथ समा गई है। इसलिए उस मूर्ति के अतिरिक्त और किसी का विचार ही नहीं हो पाता।

 वास्तव में घनानंद जी का प्रेम एकनिष्ठ और अंतर्मुखी है इसलिए उनके प्रेम में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का अत्यंत मार्मिक रूप से चित्रण किया गया है इसलिए घनानंद जी ' प्रेम के पीर ' के कवि कहे जाते हैं।
 


































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