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आकाशदीप कहानी की समीक्षा (जयशंकर प्रसाद)


आकाशदीप कहानी का वस्तु विन्यास समीक्षा 


 'आकाशदीप ' कहानी जयशंकर प्रसाद  को बहुत प्रिय थी। यह एक भाव प्रधान कहानी है, इस का वातावरण मौर्य कालीन इतिहास का है।
 अतीत के इतिहासिक कालखंड के बीच यह कहानी मार्मिक और रमणीय प्रसंगों से भरी है। इस कहानी का कथानक काल्पनिक है। क्रूर जलदस्यु बुधगुप्त और सुंदरी चंपा पर लिखी गई यह कहानी जगन्नाथ शर्मा के अनुसार नाटकीय कहानी है और पंडित विनोद शंकर व्यास के अनुसार प्रसाद प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ कहानी है।


 कहानी के कुल सात परिदृश्य हैं। कहानी का प्रारंभ नाटकीय एवं संवादात्मक है। इस प्रारंभ से एक और वातावरण निर्मित होता है तो दूसरी और नाटकीय कौतूहल और तनाव भी निर्मित होता है। जिससे कार्य का संकेत भी मिलता है।

 प्रथम दृश्य में दो बंदी समुद्र में विद्यमान नौका में है। वातावरण के दबाव में एक दूसरे के निकट आते हैं। आजादी की इच्छा उनका लक्ष्य बनती है और अपने साहस पूर्ण परिश्रम से सफलता भी प्राप्त करते हैं।

 दूसरे परिदृश्य में रात्रि के अंधकार में जो घटित हुआ उससे अनजान नौका के नायक का दोनों बंदियों को बंधन मुक्त देख आश्चर्य होता है और वह एक बंदी से जिज्ञासा करता है कि वह कैसे मुक्त हुआ।
 इस जिज्ञासा के जवाब के क्रम में नाटकीय घटनाक्रम अनावृत होता है और बंदी का परिचय जलदुस्य बुधगुप्त  के रूप में होता है दूसरा बंदी चंपा है बुधगुप्त पोताध्यक्ष मणिभद्र के अतल जल में डूब जाने की सूचना देता है और नायक के साथ द्वंद युद्ध में विजय प्राप्त करता है, प्राण दान के बदले नायक बुध गुप्त का विश्वासपात्र अनुचर बनने का वचन देता है।


 तीसरा दृश्य चंपा की जीवन - गाथा से जुड़ा है उसके पिता बुध गुप्त के आक्रमण के समय पोताध्यक्ष मणिभद्र के प्रहरी थे, सात दस्युओँ 
 को मारकर उन्होंने जल समाधि ली। चंपा की मां पहले से ही नहीं थी पिता का साया भी सिर से उठ गया तो मणिभद्र ने चंपा से एक दिन घृणित प्रस्ताव किया, विरोध करने पर चंपा को बंदी बना लिया गया।
 बुद्ध गुप्त में अपने अदृष्ट को अनीदृष्ट  मानने वाली चंपा के प्रति 'एक सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धा'  यौवन की पहली लहरों को जगाने लगे तब तक एक अज्ञात दीप से नौका टकराई और बुध गुप्त ने उस दीप का नाम चंपा दीप रख दिया।


 चौथा दृश्य पांच वर्ष बाद का है स्थितियां बदल चुकी है। निर्जन दीप संपन्न बन चुका है बुध गुप्त दृश्य नहीं रहा वह जल व्यापारी और महानाभिक बन चुका है, जीवन यापन का संघर्ष अतीत बन चुका है। चंपा के साथ महानाविक बुधगुप्त है और स्मृतियां हैं - अपने माता-पिता की और बुध गुप्त के साथ बिताए दिनों कि.....
आज वह चंपा दीप की रानी है।
 पांचवी दृश्य में चंपा का अंतर्द्वंद बुद्धदेव से प्रेम और घृणा के एक निष्कर्ष पर पहुंचता है -

 "बुधगुप्त आज ही अपना प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डूबा देती हूं। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया - चमक कर वह कृपाण समुद्र का हृदय वेधता हुआ विलन हो गया।"


 बुद्धगुप्त को जैसे मनचाहा चिर प्रतीक्षित वरदान प्राप्त हो गया हो - 
       " तो आज से मैं विश्वास करूं मैं क्षमा कर दिया गया " - 
 आश्चर्य कम्पित कंठ से महानाविक ने पूछा।

 यह वस्तु निर्माण का चरम है, किंतु अत्यंत नाटकीय तनाव से भरा जो पाठक को चैतन्य करता है और संभावनाओं की कल्पना करने के लिए स्वच्छंद करता है।
उसका सूत्र चंपा के अगले ही कथन में है -

 " विश्वास ! कदापि नहीं बुद्धूगुप्त।"
 जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया तब मैं कैसे कहूं ?……"

  ग्रीक त्रासदी  की तरह एक अनिश्चय की स्थिति से  कौतुहल  का निर्माण कर जयशंकर प्रसाद पाठक को सक्रिय करते हैं - विचारने के लिए और  बुधगुप्त इस स्थिति से आत्म - विभोर हो निर्णय लेता है -
 " इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊंगा चंपा ! यहीं इस पहाड़ी पर। "


 छठा दृश्य दीपस्तंभ बन चुका है। आज उसका महोत्सव है। चंपा को वनदेवी सा सजाया गया है बांसुरी और ढोल के स्वरों से सारा वातावरण गुंजायमान है। तभी चंपा को पता चलता है ऐसे आयोजन का एक विशिष्ट प्रयोजन भी है और वह है - उसका विवाह।
किंतु चंपा का स्वर बदलता है वह बुद्धगुप्त चाहकर भी अपने को निर्दोष कि - वह उसके पिता का हत्यारा नहीं है, नहीं सिद्ध कर पाया।
उसकी विनय हृदय वेदना की अभिव्यक्ति चंपा को उत्तेजित करती है वह अपनी प्रेमाभिव्यक्ति भी करती है, किंतु दृश्य अचानक बदल जाता है जब वह
 " सहसा चैतन्य होकर कहती है - " प्रियनाविक तुम स्वदेश लौट जाओ.……"



 सातवां दृश्य उपसंहार है, सूत्रधार के कथन सा, एक शोकगीत सा !
जब महानाविक ने पूछा  - " तुम अकेली यहां क्या करोगी ? " 
 "पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीपस्तंभ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से मैं अन्वेषण करूंगी किंतु देखती हूं मुझे भी इसी में जलना होगा जैसे  - आकाशदीप ! "


कहानी का विन्यास नाटकीय  रचनातंत्र से निर्मित वातावरण की सुरम्यता में पात्रों के अंतर्द्वंद के साथ संगठित है।
 घटनाएं नगन्य है,  छोटे-छोटे प्रसंग कथा को आगे बढ़ाते से प्रतीत होते हैं, पर उससे मामिर्कता और भावनात्मकता में गहराई आती है और चरम पर आकर अप्रत्याशित मोड़ कहानी को एक विशिष्ट अंत में ले जाता है।
ऐसा विशिष्ट अंत  जो ना तो सुखद होता है ना दुखद।  नायक नायिका के पक्ष में सुखांत्क नहीं है पर दोनों ने प्रेम का आनंद कुछ क्षण के लिए लिया, साथ ही वियोग इच्छानरूप हुआ इसलिए यह दुखांत भी नहीं है।

 सुरेश चौधरी  'आकाशदीप ' कहानी के संगठन को "अनिवार्यत : क्रेपस्कूलर "  मानते हैं।

 प्रसाद की कहानियों पर विचार करते हुए लक्ष्मीनारायण कहते हैं -  " चरम सीमा की यह कलात्मक प्रवृत्ति हमें प्रसाद के प्रथम काल की कहानियों में ही मिलने लगती है। "

 प्रसाद की इस कहानी के बारे में कहा जा सकता है कि  -
" आकाशदीप प्रतिहिंसा प्रेम और त्याग की उत्कृष्ट कहानी है। "
 इस कहानी में द्वंद - युद्ध भी है और प्रेम-चर्चा भी। नाटक के मूल तत्वों के योग के कारण इस कहानी का सौंद्रर्य और अधिक बढ़ जाता है।
 जयशंकर प्रसाद की यह ' आकाशदीप ' कहानी हिंदी कहानियों में आकाशदीप  का स्थान रखती है

कुमारी रश्मि ~

 (हिंदी के छात्रों के लिए विशेष)

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