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जाह्नवी कहानी की समीक्षा (जैनेंद्र ) हिंदी साहित्य

जैनेंद्र के प्रेम संबंधी विचारों पर प्रकाश 

   जैनेंद्र आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के कहानीकार थे। जैनेंद्र की दृष्टि में प्रेम संबंधी विचार कुछ यूं थे कि - " विवाह दायित्व लाता है और प्रेम मुक्त है "

 जैनेंद्र का लक्ष्य प्रेम द्वारा विवाह में स्वस्थ वातावरण को स्थापित करना है। जहां एक और वह पति पत्नी की निकटता के लिए बाहर से आने वाले प्रेम को आवश्यक समझते हैं वहीं दूसरी और शारीरिक भूख को प्रेम में बाधक नहीं मानते हैं।

 वे राधा कृष्ण और मीरा का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि विवाह और प्रेम में पति-पत्नी के मध्य आदर का भाव कम नहीं होता। जैनेंद्र मानते हैं कि विवाह जीवन को विस्तार देता है परिधीय केंद्र नहीं देता। विवाह द्वारा हम अपने प्रेम का विस्तार करने का अवकाश पाते हैं। यदि विवाह प्रेम करने वाली चीज हो जाए तो परिवार जेल है। स्वत्व मूलक परिवार जकड़ बंद बन जाता है परंतु प्रेम में व्यक्ति की स्वतंत्रता बनी रहती है जिसे जैनेंद्र जानवी पात्र के इस कथन के माध्यम से बताते हैं।

 जब जहान्वी साहस पूर्वक अपनी सच्चाई अपने होने वाले पति को पत्र द्वारा बताती है  -
 "......... लेकिन मेरे चित की हालत इस समय ठीक नहीं है और विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान की पात्रता मुझमें नहीं है ...."
"...... एक  अनुगता आपको विवाह द्वारा मिल जाएगी। लेकिन विवाह द्वारा सेविका नहीं मिलनी चाहिए धर्मपत्नी मिलनी चाहिए। वह जीवनसंगिनी भी हो।"

 जैनेंद्र कहते हैं कि ' प्रेम और सेक्स ' में अंतर है।
 शारीरिक भूख की परितृप्ति का माध्यम शरीर बन जाता है किंतु आत्मा की प्यास जो आंखों में झलक रही होती है वह इस परितृप्ति से मिटती नहीं।

 आत्मा की प्यास की परितृप्ति तो प्रेम से ही हो सकती है इसलिए जहान्वी कौवों से आग्रह करती है -
" कागा चुन चुन खाइयो " -
 दो नैना मत खाइयो !
 मत खाइयो
 पीउ मिलन की आस। "

 यानी कि पूरे शरीर को नोंच - नोंच कर खा जाना किंतु उन दोनों नैनों पर छोड़ देना जिन्हें शरीर के समाप्त हो जाने के बाद भी पिया से मिलने की आशा शेष है।
इस तरह जैनेंद्र कहना चाहते हैं कि प्रेम में व्यथा प्रेम को प्रगाढ़ करता है। शरीर का नोचा जाना भौतिक जगत की विषमताओं का प्रतीक भी है और नैनो को छोड़ देने के आग्रह में उस अलौकिक शाशत्व सत्य को जान लेने की उत्कंठा भी।



 प्रेम अपने आप में पवित्र और दिव्य भाव है, उसकी पवित्रता में किसी प्रकार का संशय करना गलत है। प्रेम में नैतिकता को जैनेंद्र  महत्व नहीं देते, महत्वपूर्ण है प्रेम में निश्छलता और निष्कपटता की। शारीरिक और अपवित्रता निष्कुलष प्रेम में बाधित नहीं बनती और सच्चा प्रेम अहिंसक और सहिष्णु होता है। जैनेंद्र के अनुसार प्रेम अहं का विसर्जन मानता है, चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक।
 जब हम प्रेम में अपने आप को अपने अस्तित्व को समर्पित कर देते हैं तभी वह प्रेम अनन्य प्रेम हो जाता है।

 जैनेंद्र प्रेम को व्यथा - वियोग से जोड़ते हैं, उसके बिना आत्मप्रकाश संभव नहीं है। क्योंकि व्यथा - वियोग से सभी प्रकार के विकारों अहंकार, ईर्ष्या, मोह, अज्ञान आदि का त्याग होता है।

 सारांशत: कहा जा सकता है कि जैनेंद्र प्रेम को अनैतिक नहीं पवित्र मानते हैं। प्रेम में शारीरिक भूख और प्यास में अंतर है और दोनों एक दूसरे की राह में बाधक नहीं है। प्रेम वैवाहिक जीवन में बाधा न होकर जीवन को अधिक सुखद एवं आनंदमय बनाने वाला है। जैनेंद्र  प्रेम को जीवन में आत्म प्रकाश फैलाने की बात भी कहते हैं।



















~ रश्मि 






 

  

 

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