खेल का मैदान हो
या राजनीति का अखाड़ा
या फिर जिंदगी का गेम
हर खेल पे
सवाल उठते हैं
आप ईमानदारी से खेले
या बेईमानी से खेले
जिसकी जीत हो
वही राजा होता है
प्रजा तो मुकदर्शक होती है
ज्यादा सवाल जवाब
रिश्ते बिगाड़ते हैं
जवाब देना हो
तो जीत कर दें
भले लाख हो कठिनाईयां
हारने वाले का साथ तो
अपने भी छोड़ देते हैँ
दूसरों से उम्मीद बेकार है
अब ना यहाँ कोई गांधी है
ना ही कोई भगवान
अपनी-अपनी रोटी है
अपना-अपना चूल्हा
हाथ जलाने दूसरे घर
क्यूँ भला जाये कोई
सांप और सीढ़ी का गेम है
चूहे बिल्ली का दौड़ है
यहाँ ना कोई साधु
ना ही कोई महात्मा
अपनी लड़ाई अपना मैदान
साम दाम दंड भेद
इसी का जमाना है
जिसे आ गयी
यह चाणक्य नीति
वही राजा है
बाकी प्रजा तो मुकदर्शक है
यही आज के जीवन का सार है....
~रश्मि
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