हिंदी साहित्य का आदिकाल विभिन्न प्रकारों की प्रवृत्तियों का काल है । साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है । सामाजिक जीवन की परिस्थितियों से अद्भुत जनजीवन की भावधाराएँ ही साहित्य में उभरती हैं। हमें आदिकालीन साहित्य के सर्वांगीण विवेचन से दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ दिखाई जाती हैं -
1. भावपक्ष संबंधी प्रवृत्तियां,और
2. कला संबंधी प्रवृत्तियाँ।
भावपक्ष संबंधी प्रवृत्तियां -
1. ऐतिहासिक क्षणों का अभाव - आदिकालीन प्रिय: सभी काव्यों ने इतिहास के प्रसिद्ध नायकों का चित्रण किया है , लेकिन उनमें और संगतियों की भरमार है अपनी जड़ों में उन्होंने जिन कहानियों और तिथियों का वर्णन किया है, वे ना तो ऐतिहासिक तिथियों से साम्य रखते हैं और ना ही संस्कृत काव्य में वर्णित घटनाओं और तिथियों से।
सच तो यह है कि उन्होंने अपने आश्रयदाताओं के सम्मान में ऐतिहासिक बलिदान की घोषणा कर दी है।
2 . राष्ट्रीयता की संकुचित विचारधारा -
आदिकालीन काव्यों की रचनाएँ अपने-अपने संरक्षक संतों के अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशस्ति गान से भरी हुई हैं । वे दरबारी कवि थे क्योंकि आश्रय दाताओं के मिथ्या गुणगान से अघाते नहीं थे । देश की राजनीतिक स्थिति और भविष्य की कोई चिंता नहीं थी। इसके आधार पर उनके दशकों में राष्ट्रीयता की व्यापक विचारधारा का अभाव पाया जाता है।
3 . युद्धों का सजीव और प्रभावशाली वर्णन -
आदिकालीन कवि अपने संरक्षकों के साथ रणभूमि में भी जाते थे और अपने ओजपूर्ण पूर्वजों से राजा और अपनी सेना को उत्तेजित करते रहते थे।
वह अपनी आंखों से युद्ध करते थे । उनके आधार पर उनकी रचनाएँ युद्ध वर्णन में अपनी सजीवता की दृष्टि से बेजोड़ हैं ।
वर्तमान हिंदी साहित्य में भूषण जैसे कवि की जड़ों को छोड़कर अन्य कविताओं में युद्ध का ऐसा संजीव और प्रभावोत्पादक वर्णन नहीं मिलता है ।
जगनिक ने 'आल्हाखण्ड' में आल्हा की वीरता का वर्णन इन शब्दों में किया है -
"बारह बरस लौं कुकुर जिए,औ तेरह लौं जिए सियार।
बरज अठारह क्षमा जिए,आगे जीवन कौन धिक्कार॥"
4 . श्रृंगार और वीररस का अद्भुत सामंजस्य -
आदिकालीन साहित्य में काव्यों ने अपने नायक के शौर्य प्रदर्शन के लिए किसी रमणी को युद्ध के कारण के रूप में प्रस्तुत किया है। अब युद्ध के क्रम में नारी के सौंदर्य - वर्णन आदि श्रृंगार प्रमुख रचनाएँ भी आई हैं ।
साथ ही नायक की शानदार का चमत्कारिक पूर्ण वर्णन करने के लिए नारी का ऐश्वर्य प्रधान श्रृंगारात्मक वर्णन भी मिलता है।
5 . प्रकृति चित्रण -
आदिकालीन साहित्य में आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों में प्रकृति चित्रण मिलता है । नगरों नदियों पर्वतों आदि का उत्कृष्ट वर्णन कविताओं ने किया है।
कहीं-कहीं प्रकृति का स्वतंत्र वर्णन भी मिलता है ।
संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष में उन कविताओं का प्रकृति वर्णन अधिक सरस और मर्म स्पर्शी बन पड़ा है ।
6 . जनजीवन से संपर्क का अभाव -
आदिकालीन साहित्य में सामंती जीवन का चित्रण सबसे प्रमुख रूप से है। अथाह तत्कालीन साहित्य जनजीवन से दूर है।
7 . भावोन्मेष का अभाव -
आदिकालीन साहित्य में इतिवृत्त रूप में वर्णनात्मकता को प्रमुखता दी गई है । आधार स्थल - स्थल पर वर्णन अत्यंत निस्तेज और शुष्क है ।
कलापक्ष संबंधी प्रवृत्तियां -
1. प्रबंधन और मुक्तक संबंधी प्रवृत्तियां -
इस काल के साहित्य में हमें दोनों प्रकार के काव्य मिलते हैं।
'खुमान रासो' 'पृथ्वीराज रासो' प्रबंधकाव्य है और वीसलदेव रासो मुक्तक काव्य है ।
इस काल के काव्य में किसी एक निश्चित रूप का अभाव मिलता है ।
2 . भाषा -
आदिकालीन काव्य की भाषा 'डिंगल' और 'पिंगल' है । वीर रस के वर्णन का डिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है और श्रंगार रस के वर्णन में पिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है ।
3 . छन्द योजना - छंदों की विविधता आदिकालीन हिंदी कवियों की बहुत बड़ी विशेषता है दोहा , तोमर, टोटक, गाथा, रोला आदि छंदों का प्रयोग हुआ है । छंदों का परिवर्तन भी धड़ल्ले ले से हुआ है ।
उनका प्रयोग बहुत उपयुक्त और चुभता हुआ जान पड़ता है ।
इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है रासो के छंद जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कंपन उत्पन्न करते हैं ।
4 . अलंकार - आदिकालीन काव्य में अलंकारों का प्रयोग बड़ी सफलता के साथ हुआ है जिनमें अनुप्रास ,यमक , उपमा , उत्प्रेक्षा, रूपक आदि प्रमुख हैं ।
5 . काव्य रूप - . आदिकालीन रचनाओं में काव्य के दो रूप मिलते हैं -प्रबंध काव्य और मुक्त काव्य ।
"पृथ्वीराज रासो, संदेशरासक , खुमानरासो, परमालरासो आदि प्रबंधकाव्य हैं तो खुसरों की पहेलियां, विद्यापति की पदावली आदि मुक्तक और वीरगीतिकाव्य है।
निष्कर्षत : कहा जा सकता है किआदिकालीन काव्य ऐतिहासिक दृष्टि से उतना महत्वपूर्ण नहीं है , जितना कि साहित्य के भाव और कला पक्ष की दृष्टि से है।
Rashmi🙏
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