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वक्रोक्ति सिद्धांत का अभिप्राय और कुंतक के वक्रोक्ति-सिद्धांत की समीक्षा


वक्रोक्ति का स्पष्ट अर्थ होता है - विलक्षण या लोकातिक्रांत कथन। इसका अभीप्राय बनता है -  'कथन-भंगिमा '।
 साधारण उक्तियां सामान्य  व्यवहार में लाई जाती हैं, परंतु ऐसे कथनों में रस नहीं होता काव्य का लोकोत्तर वर्णन ही पाठकों में रस उत्पन्न करने में समर्थ होता है। इसलिए वक्रोक्ति का मूल अभिप्राय यह है कि किसी बात को सीधे ढंग से कहने में सरसता नहीं आ पाती। इसके लिए कथन में विशेष ढंग अपनाना पड़ता है। ऐसा कथन चमत्कार पूर्ण होता है। इसलिए यह चमत्कार पूर्ण कथन 'वक्रोक्ति' है।


वक्रोक्ति दो शब्दों के मेल से बना है -
 'वक्र और उक्ति' वक्र का अर्थ है - बांकपन, कुटिल, बांका या विलक्षण।
उक्ति का अर्थ है - ' कथन '।
स्पष्ट है वक्रोक्ति का अर्थ हुआ - बांकपन या विलक्षणता से भरा हुआ कहनेेेे का अंदाज।

यहीं इसी विलक्षण कथन का अब का मूल तत्व माना गया है। शायद इसलिए इस विलक्षणता के अभाव में काव्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता है या विलक्षणता शब्द रूपणी भी हो सकती है और अर्थ-रूपणी भी आचार्य कुंतक  काव्य में इन दोनों विलक्षणता को स्थान देते हैं और वक्रोक्ति को ही काव्य की 'आत्मा' मानते हैं

'वक्रोक्ति' शब्द के विवेचन से स्पष्ट होता है कि कभी शास्त्रीय व्यवहारिक विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के लिए समान मनुष्य द्वारा अपनाए गए पद्धतियों से अलग विलक्षणता का आश्रय लेता है।
जैसे - एक सामान्य व्यक्ति किसी से यूं प्रश्न करेगा- "आप कहां जा रहे हैं?" परंतु कालिदास की शकुंतला की सखी अनुसूया राजा दुष्यंत से यूं प्रश्न करती है - "किस देश की प्रजा को आपने अपने विरह से व्याकुल बनाया है।"

वक्रोक्ति मैं बात वही कही जाती है जो कहीं जानी है, लेकिन कहने के ढंग में ऐसा चमत्कार ऐसी विशेषता और विलक्षणता होती है कि सुनने वाला वास्तव में चमत्कृत हो उठता है।

वक्रोक्ति को काव्य की आपकी आत्मा मानने वाले कुंतक और सभी वक्रोत्रवादी इसी चमत्कार को चमत्कृत कर देने वाले काव्य का मूल अभिप्राय और उद्देश मानते हैं।

 कुंतक काव्य में शिवत्व - समाजिक शिवत्व का होना अत्यंत आवश्यक मानते हैं।
कुंतक ने प्रबंध-वक्रता को स्पष्ट करते हुए कहा है- "राम के समान आचरण करना चाहिए, रावण के समान नहीं- यह अर्थ प्रबंध-काव्य का चमत्कारिक सौंदर्य है। "

 कुंतक विषय और उसकी अभिव्यक्ति दोनों का ही सुंदर होना स्वीकार करते हैं। ऐसा मानकर वह अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों के ही सुचारू समन्वय का विधान करते हैं। परंतु यहां भी महत्व अभिव्यक्ति को ही देते हैं। अभिव्यक्ति की शब्दावली में कल्पना का वह पुट लगा रहता है। कमल को कमल ना कहकर "सरसी के नेत्र" कहना, 'उषा' को 'उषा' ना कह कर  'भगवान के चरणों की लाली कहना ' अभिव्यक्ति की विशिष्ट भंगिमा ही तो है।
 कुंतक ने इस प्रकार की कथन भंगिमा को वैचित्रय और लोगों के कहने का विशेष ढंग भी कहा है।


 कुंतक का वक्रोक्ति सिद्धांत -

 आचार्य कुंतक का वक्रोक्ति सिद्धांत एक प्रमुख काव्य सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। आचार्य कुंतक  वक्रोक्ति को काव्य का व्यापक गुण मानते हैं और वह वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार करते हैं।
 आचार्य कुंतक वक्रोक्ति को सिर्फ उक्ति चमत्कार ही नहीं मानते बल्कि वे तो इसे सीधे तौर पर कवि व्यापार और कवि कौशल के रूप में मान्यता देते हैं।

 आचार्य कुंतक ने अपने सिद्धांत में विषय-वस्तु की स्वाभाविक रमीणयता को स्वीकार किया है परंतु इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि कवि को सहृदय रमणीय धर्मों को व्यक्त करना चाहिए और यह कवि की प्रतिभा से ही संभव हो पाता है।
 स्पष्ट है कि कुंतक के अनुसार  अनन्तोगत्वा कवि  व्यापार ही प्रमुख और महत्वपूर्ण है।

 आचार्य कुंतक काव्य को शब्द और अर्थ दोनों को समान महत्व देते हुए उसे आह्लाद देने वाला मानते हैं। काव्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों के बीच मेल होना चाहिए।

 काव्य की वस्तु साधारण ना होकर विशिष्ट होनी चाहिए और वस्तु को अभिव्यक्त करने वाली अभिव्यंजना शैली और असाधारण और विलक्षण होना आवश्यक होता है।

 अलंकार काव्य के मूल तत्वों में से एक है, केवल बाह्य भूषण नहीं।
 काव्य का काव्यत्व कवि कौशल पर ही निर्भर करता है। आचार्य कुंतक काव्य के मूल तत्व 'रस' को महत्व न देकर केवल कवि-कौशल को ही काव्य की सफलता का आधार मानते हैं।

 वास्तव में आचार्य कुंतक के काव्य-सिद्धांत  ' 'वक्रोक्ति-सिद्धांत ' को महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। कुंतक का दृष्टिकोण आचार्य भामह, दंडी या वामन की अपेक्षा कहीं ज्यादा व्यापक और उदार है वह  उनकी के सच्चे मर्मज्ञ थे। उनकी दृष्टि में अलंकार सहित शब्द और अर्थ तीनों की समीष्ट ही काव्य है।

 निसंदेह आचार्य कुंतक पहले आचार्य थे जिन्होंने वक्रोक्ति-सिद्धांत का विस्तार से निरूपण किया है। वह ' वक्रोक्ति जीवितम ' में वक्रोक्ति के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहते हैं - "  वक्रोक्ति ही शब्द और अर्थ दोनों का एकमात्र अलंकार है। प्रसिद्ध कथन से भिन्न शैली ही वक्रोक्ति है।"

 कुंतक की स्थापना 
"वैदिग्ध -भंगी भणिति"  में विद्गघता में सौंदर्य चमत्कार रमणीयता  अह्ह्लादकारिता  आदि का भाव निहित है।

 इस प्रकार वक्रोक्ति को ही एक मात्र अलंकार और काव्यत्व के रूप में प्रतिष्ठित करके कुंतक ने समस्त  काव्य व्यापार  में  वक्रोक्ति का विस्तार दिखाया है।
'शब्दार्थो सहितों काव्यमं ' - मैं काव्य को स्पष्ट करते हुए कुंतक ने कहा है कि वैसे तो सभी वाक्यों और शब्द में अर्थ का स्वभाव होता है,  लेकिन काव्य में उनका विशिष्ट स्वभाव अभिप्रेत है। ऐसा स्वभाव जिसमें वक्रता ( सौन्दर्य ) हो तभी उसमें रमणीयता आती है और काव्य - मर्मज्ञ के लिए आनंददायक होता है।

 शब्द और अर्थ के स्वभाव में यदि कमी हो तो उत्तम चमत्कारी अर्थ भी निर्जीव -सा ही रहता है और शब्द भी चमत्कारी अर्थ के अभाव में वाक्य भारभूत-सा प्रतीत होने लगता है। कुंतक के इस विवेचन में व्यापक सौंदर्य नियमों का निरूपण हुआ है।

 बाद के अलंकारिकों की संकीर्ण दृष्टि इसकी व्यापकता और महत्ता को संभवत: सह नहीं पाई। इसलिए वक्रोक्ति-सिद्धांत के एकमात्र प्रवर्तक आचार्य कुंतक ही हैं।

  ( हिंदी छात्रों के लिए विशेष )

~रश्मि 



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2 Comments

  1. बहुत सुंदर 🙏.....मनोविश्लेषणवाद पर भी लेख दिजिए शीघ्र

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  2. शुक्रिया,‌‌‌‌जरुर

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