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रोजगार दे दो (हिन्दी कविता)


रोजगार दे दो  (हिंदी कविता)


सारी डिग्रियां सारे प्रमाण पत्र
 सारे मैडल बेकार लगते हैं
 जब पेट की क्षुदा
 एसिड बन रगों में दौड़ने लगते हैं
 तब सारे मान-स्वाभिमान
 तिरोहित हो जाते हैं
 भूख की अंतहीन गाथा में 
 अब कूड़ा बिनूं 
 या राह में रेहरियाँ लगाऊं
 परहेज नहीं
 परहेज तो है उन दो जोड़ी आँखों का
 आसरा तक रही
 दीपक जलने का .....
 जमीन बिक गई
 घर गिरवी हो गये
 पर भूख है
 की बिकती ही नहीं...
 बड़ी मरोड़ देती है
 साली अंतरियों में
 जैसे धोबी कपड़े से पानी निकाल रहा हो...
 चांद तारों से बातें करते करते
 सारे तारे गिन लिए
 पर पेट कि क्षुदा मिटती ही नहीं
 रोजगार मांगे शरीर मेरा
 रोजगार मांगे धर्म मेरा 
 तुम हो की बातें ही बस किये जा रहे हो 
 बातें मत बनाओ
 रख लो सारे प्रमाणपत्र मेरे
 रख लो मेरा ईमान धर्म
 मंदिर भी रख लो मस्जिद भी रख लो
 रख लो मेरे हाथ पैर
 बेकार हूं साहब 
 नमक तो है पर रोटी नहीं
 एक रोजगार दे दो साहब
 एक रोजगार दे दो साहब 
 भूख है कि मानती नहीं....

~रश्मि
















 

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