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भूषण की भाषा शैली ( निबंध )

भूषण की भाषा शैली  ( निबंध )



वीर रस के कवियों में भूषण का अग्रण्य स्थान है। उनकी कविताओं के शब्द हुंकार भरते हैं, गरजते हैं। रीतिकाल के कवि होकर भी उन्होंने श्रृंगार रस का वर्णन नहीं किया उन्होंने मुक्त कंठ से वीर रस का उत्साह पूर्वक वर्णन किया है।

भूषण रीतिकाल के कवि थे और उसे युग के काव्य-भाषा प्रधानतया ब्रजभाषा थी । भूषण की काव्य-भाषा  ब्रज-भाषा तो थी परंतु वीर रस से समन्वित हो जाने के कारण ब्रज-भाषा ने अपनी कोमलता का त्याग कर दिया है । 
यही कारण है इनकी इनकी रचनाओं में ब्रजभाषा का कठोर रूप पाया जाता है । वस्तुतः भाषा का यही रूप वीर रस के अनुकूल ठहरता है उनके काव्य-भाषा की ताजगी आज भी वही है ।
इन पंक्तियों में कितने नवीनता है -

साजि चतुरंग-सैन अंग में उमंग धारि, 
सरजा सिवाजी जंग जीतने चलत है। 

भूषन भनत नाद बिहद नगारन के, 
नदीनद मद गैबरन के रलत है।।

ऐलफल खैलभैल खलक में गैल-गैल, 
गजन की तैलपैल सैल उसलत है। 

तारा सौ तरनि धूरिधारा में लगत जिमि 
थारा पर पारा पारावार यों हलत है।।

भूषण की ब्रज भाषा में बैलबाड़ी की झलक है और इसके साथ-साथ उनकी काव्य भाषा में अपभ्रंश , प्राकृत, अवधि आदि भाषाएं भी चित्रित हुई है । 

उस समय भारतवर्ष में हिंदू और मुसलमान में दो जातियों का संपर्क हो गया था जिसके कारण फारसी शब्दों का प्रयोग समाज के बीच होने लगा था । इसी संपर्क के कारण भूषण की कविता में विदेशी शब्दों का बाहुल्य पाया जाता है इस प्रकार के प्रयोग मुसलमान के ही प्रसंग में हो पाए हैं,  जैसे -

" बचेगा न समुहाने बहलोल खाँ अयाने,
'भूषण' बखाने दिल आनि मेरा बरजा । '


परंतु भूषण द्वारा प्रयुक्त विदेशी शब्द तद्भव रूप में ग्रहण किए गए हैं ना कि तत्सम रूप में।  इसलिए इन्होंने आवश्यकता अनुसार विदेशी शब्दों के तत्सम रूप को तद्भव रूप में ही ग्रहण करने की चेष्टा की ।

जैसे - 'वेहद' से बिहद,' सरजाह ' से 'सरजा'  आदि।

भूषण ने मराठी भाषा के शब्दों का भी अनुकरण किया है । आदिलशाह को 'एदल' और बहादुरखां को 'बादरखाँ' लिखना मराठी का ही अनुकरण है | 

भूषण ने विदेशी भाषाओं के तो अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कर अपनी काव्य भाषा के साथ ज्यादती दिखलाई है , 
जैसे - फारसी के तकिया  (आश्रय) . बगार    
( दुर्गमघाटी ) आदि शब्द अरबी के 'सरजा' (शरलज-सिंह) हमाल ( बोझढोने वाला ) 
तुजुक ( इन्तजाम ) आदि शब्द  का प्रयोग हुआ है ।

कहीं-कहीं उन्होंने ऐसे ठेठ शब्दों या तद्भव शब्दों का प्रयोग किया है जो विशेष रूप से प्रचलित नहीं है ।
जैसे - आइ ( सामर्थ्य  ) , गारो  , ( गर्व ) घोपु ( तलवार)
आदि ।
इन्होंने प्रांतीय मुहावरे काम ही रखे हैं , और जो भी मुहावरे आए हैं वह अपने सही रूप में उतरे हैं ।
 जैसे - ' सौ सौ चूहे खाकर बिलाई बैठी जप के ' I 

अथवा
 
" कालिह के जोगी कलोंबे को खप्पर । "

शैली - भूषण की शैली विरोचित है और उसमें हम तीन विशेषताएं पाते हैं -


1- चित्रोपमता
2- प्रभावोत्पादकता
3- ओजस्विता


भुषण के काव्य में जब चित्रोपमता शैली को हम देखते हैं तो भूषण का युद्ध वर्णन बड़ा ही सजीव और स्वाभाविक दिखता है। युद्ध के उत्साह से युक्त सेनाओं का रण की ओर प्रस्थान करना ।
युद्ध के बाजों का घोर गर्जन करना हो या फिर रण भूमि में हथियारों का घात-प्रतिघात को चित्रित बहुत ही सुंदर ढंग से दर्शाया गया है।

शूरवीरों के पराक्रम और कायरों की भयपूर्ण स्थिति   अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना का रण के लिए प्रस्थान करते समय का एक चित्र भुषण के काव्य में देखिए -

साजि चतुरंग बीररंग में तुरंग चढ़ि।
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है॥

भूषन भनत नाद विहद नगारन के।
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं॥

ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल,
गाजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।।

तारा सों तरनि घूरि धरा में लगत जिम,
धारा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं॥


 प्रभावोत्पादकता का उदाहरण देखिये -

कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सों, 
दामिनी पावस मेघ घटा सों। 

जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, 
हिंदवान खुमान सिवा सों।।

भूषण के काव्य में जब हम ओजस्विता की बात करते हैं तो इन पंक्तियों को देखना बहुत आवश्यक है -

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर,
रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,
'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी,
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं,
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं॥

भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।

'भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जडातीं ते वे नगन जडाती हैं॥

छूटत कमान और तीर गोली बानन के,
मुसकिल होति मुरचान की ओट मैं।

ताही समय सिवराज हुकुम कै हल्ला कियो,
दावा बांधि परा हल्ला बीर भट जोट मैं॥

'भूषन' भनत तेरी हिम्मति कहां लौं कहौं
किम्मति इहां लगि है जाकी भट झोट मैं।

ताव दै दै मूंछन, कंगूरन पै पांव दै दै,
अरि मुख घाव दै-दै, कूदि परैं कोट मैं॥

बेद राखे बिदित, पुरान राखे सारयुत,
रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं।

हिंदुन की चोटी, रोटी राखी हैं सिपाहिन की,
कांधे मैं जनेऊ राख्यो, माला राखी गर मैं॥

मीडि राखे मुगल, मरोडि राखे पातसाह,
बैरी पीसि राखे, बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी, तेग-बल सिवराज,
देव राखे देवल, स्वधर्म राख्यो घर मैं॥

उपयुक्त इन्हीं विशेषताओं के कारण पाठकों के समक्ष वर्ण विषय के अनुकूल एक चित्र खड़ा हो जाता है और वह देखता रह जाता है। भूषण के काव्य की यही विशेषता बहुत ही अद्भुत है।








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