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केतु ( कविता)

केतु (कविता)


जो दिल से उतर जाते 
वो माथे पे नहीं सजते हैं ।
जो नजर से गिर जाते 
वो माथे का गुरूर नहीं बनते हैं ।।

वो खुश हैं इस भ्रम में 
हमें कुछ पता नहीं 
हम खुश हैं 
सारे भ्रम से मुक्त हो गए।।

अब आंखो पे 
कोई जाला नहीं रहा ।
अब हृदय पे 
कोई छाला नहीं रहा ।।

खोने का कुछ भय नहीं 
पाने की कोई चाह नहीं।
ये मुक्ति का आनंद 
नए जीवन का संचार है।।

कहते हैं कौशिक 
केतु की जागृति -
"कौन हूं मैं" ।
तलाश आरम्भ है ।।




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