इंसान और धर्म ( कविता )
क्यूँ हम नष्ट करे
बेमतलब की बातों से....
हम इंसान हैं
इंसान क्यूँ ना रहे केवल
मोहब्बत के पाठशाला में....
क्यूँ बने हम नरभक्षी
क्यूँ बने हम दंगाई
इंसान हैं इंसान ही क्यूँ ना रहे...
धर्म नहीं सिखाता
हमें भक्षक बनने को
धर्म नहीं कहता
हमें खून की होली खेलने को...
धर्म तो प्रतीक है
सुख-शांति और आधात्मिकता का
फिर क्यूँ हम लगे पड़े हैं
धर्म को अधर्म बनाने में....
तु अल्लाह बोले
मैं ईश्वर बोलूं
या कुछ और नाम दूँ
मकसद तो एक ही है
सुख और प्रेम का....
हमें बनाने वाले जो भी हो
ईश्वर-अल्लाह या ईसा-मसीह
उसने तो कोई भेद किया नहीं
हमें गढ़ने में - सँवारने में
तुम्हारे भी दो हाथ
हमारे भी दो हाथ
तुम्हारी भी दो आँखें
हमारी भी दो आँखें
रति भर का फर्क
उपरवाले ने किया नहीं...
फिर क्यूँ
जो हमारी बोटियाँ पर रोटियाँ सेकते हैं
उन मौका-प्रस्त हैवान के
बेसिर-पैर अल्फाजों से
हम गुमराह हो जाते हैं...
जिंदगी बड़ी खूबसूरत है
क्यूँ हम नष्ट करे
और नष्ट हो जायें
बेमतलब की बातों से ...
~रश्मि
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