सच (कविता)
उतना ही सच से सबको बड़ा भय लगता है
राजा हो या संतरी...
सच सामने खड़ा हो हिमालय की तरह
तो छप्पन इंच का सीना हो
या बीस इंच की जुबान
सब पिघल जाते हैं
फिर सब
सामने नजर आ जाता है....
झूठ-फरेब
खून व जुर्म
लालच व वस्त्र विहिन शरीर....
सच देख पाप और पापी
बड़ा कुलबुलाते हैं
हाथ-पैर पटकते हैं
फिर नई साजिशे
फिर से कोई नया खेल
प्रारम्भ हो जाता है
और नारा ईश्वर का लगाया जाता है...
ईश्वर भी चकराते होंगे
देख कर इनकी बुद्धिहीन सोच
इनका ना कोई चाल है
ना चलन
ना इनके लिये कोई नियम है
ना कानून....
सच तो यह है की
ये ना ईश्वर को मानते हैं
ना पाप और पुण्य को
ईश्वर तो वो मुखौटा है
जिसकी सीढ़ी बना
सत्ता पे बैठ जाते हैं
मगर ईश्वर से भी ना डरने वाले
सच से भयभित हो जाते हैं....
कलयुग हो या सतयुग
सच वो हीरा है
सबके रंग उतार देता है
सबको नग्न कर के रख देता है...
इसलिए चलने लगी है धारा
सच को नदी में प्रवाहित कर दो
झूठ को सच के कपड़े पहना दो...
बड़ा अजीब सा खेला है
सच भी कम नहीं
नदी से घूमते-घूमते
समुन्दर से जा मिलता है
समुन्दर को कोई रोक सका है
ना थाम सका...
सच जब समुन्दर बन जायेगा
तब ?
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