मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ज्ञान ही होना चाहिए क्योंकि सुख,आनंद,मनोरंजन आदि का एक ना एक दिन अंत हो ही जाता है अतः यह समझ लेना कि सुख ही जीवन का अंतिम उद्देश्य या लक्ष्य है तो यह बिल्कुल गलत है।
हमारी नासमझता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारे दुखों का अंत सुख है पर वही सुख हमें कुछ समय पश्चात आनंद नहीं देता और उस सुख में भी हम दुख को ही ढूंढ लेते हैं। फिर हम किसी और सुख की तलाश में लग जाते हैं और तत्कालीन सुख की अवस्था भी हमें दुख की अवस्था लगती है।
यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है रोज नए सुख की तलाश फिर उस सुख में दुख की तलाश चलती ही रहती है। जब तक कि हमारे जीवन का सुख-दुख ज्ञान की पगडंडियों पर ना चलना सीख जाए।
यह ज्ञान आखिर में हमें कहां मिलते हैं। यह समझने वाली बात है की हमें ज्ञान सुख की अवस्था में भी मिलते हैं और दुख की अवस्था में भी परंतु दुख के पल में हमें अधिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
असल में यह ज्ञान हमारे अंदर ही अंतर्निहित है। क्योंकि ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता वह हमारे भीतर ही मौजूद होता है जो अलग-अलग परिस्थितियों में अपने आवरण या कवच से बाहर निकल आता है। तो हम उसे अविष्कार का नाम देते हैं।
यह अविष्कार भौतिक-समाजिक या मानसिक या किसी भी स्तर का हो सकता है।
परन्तु हमें यह अविष्कार या खोज दुख की अवस्था में ज्यादा प्राप्त होते हैं क्योंकि दुख ही सुख की जननी है और सुख की प्राप्ति के लिए हमें ज्ञान की खोज अपने भीतर से ही खोज कर निकालने पड़ते हैं।
जैसे-जैसे हमारे अंदर से अज्ञानता का पर्दा हटता जाता है हमारे अंदर से ज्ञान का खजाना बाहर आता जाता है। यानी हम अपने आप को सुख-दुख झूठ-कपट-प्रपंच निंदा रूपी आवरण से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में आते हैं तो यह सारे प्रपंच हमें महत्वहीन प्रतीत होते हैं।
दुनियाँ में मनुष्य के अंदर जितने भी शक्ति अंतर्निहित होती है उसमें सबसे प्रबल शक्ति ' कर्म ' होती है। हमारा कर्म ही हमारे चरित्र की विशेषता को आरेखित करता है।
बरहाल मनुष्य पूरे ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु होता है। मनुष्य ब्रह्मांड की सारी शक्तियों को अपनी ओर खींचता रहता है और फिर उसे अपनी ओर से बाहर की ओर भेजता है जैसे मनुष्य ब्रह्मांड से अपने सुख-दुख अच्छा-खराब या आनंद-चिंता-निंदा, लोभ-इच्छा आदि सब अपनी और पूरी शक्ति से खींचता है।
फिर उसे अपने में समाता है फिर इन्हीं शक्तियों को आपस में मिलाकर अपने चरित्र का गठन करता है और फिर अपने चरित्र अनुसार इसी शक्तियों को बाहर ब्रह्मांड में भी भेजता है।
यह सारा प्रक्रम हमारे भीतर का या हमारे भीतर की इच्छा का है, जिसे हम मन भी कहते हैं। इसी कारण जितने भी अविष्कार चाहे वह भौतिक वस्तुओं का हो या मानसिक शक्तियों का हो वह हमारे इच्छा के कारण ही हुआ है।
तो ब्रह्मांड से जितना हम लेते हैं उससे ज्यादा हम उन्हें वापस भी करते हैं। यह सब कुछ तब होता है जब व्यक्ति सुख-दुख से निकलकर अपने अंतर्निहित ज्ञान या अविष्कार की खोज कर उसे ब्रह्मांड के सामने प्रस्तुत करता है.....
क्रमशः
~रश्मि
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