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मलिक मोहम्मद जायसी (कवि ) Poet -Jaysi

मलिक मोहम्मद जायसी (कवि)
    Poet - Jaysi



 मलिक मोहम्मद जायसी भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रय शाखा के कवि हैं 'जायसी' उनका उपनाम है। जायसी का जन्म - 1397 ईस्वी भी और 1494 ईस्वी के बीच माना जाता है।  जन्म स्थान रायबरेली जिला उत्तर प्रदेश माना गया है। इनकी मृत्यु काल -1542  ईस्वी माना गया है।

हालांकि जायसी के जीवन वृत्त से संबंधित कोई वह साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन जायसी की रचना आखिरी कलाम के निम्न पंक्तियों के आधार पर इन्हें जायस नगर का निवासी बताया गया है।

1.   जायस नगर मोर अस्थानू।
      नगरक नांव आदि उदयानू।
      तहां देवस दस पहुने आएऊं।
      भा वैराग बहुत सुख पाएऊं॥


2.   भा अवतार मोर नौ सदी।
      तीस बरिख ऊपर कवि बदी॥ 

 कहा जाता है कि 'जायसी' के पूर्वज ईरान से आए थे उनके पिता का नाम मलिक राजे 'अशरफ' था और वह जमींदार थे। जायसी जब बहुत छोटे थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी माता की मृत्यु भी कुछ सालों बात हो गई। इस कारण से साधु एवं फकीरों की संगति में रहने लगे थे। उनके गुरु का नाम 'शेख मोहिदी' था


 कई साथियों से ज्ञात होता है कि - बचपन में एक हादसे में जायसी की एक आंख से अंधे हो गए थे, या काने थे और उनका एक कान भी नहीं था। चेचक हो जाने के कारण उनका चेहरा कुरूप हो गया था।
 प्रथम बार इनकी कुरूपता को देखकर शेरशाह सूरी हंस पड़े थे कहते हैं कि जायसी ने उससे अत्यंत शांत भाव से पूछा -
  " मोहि का हंससि, के कोहरहिँ ? "
 अर्थात "तुम मुझ पर हंसे हो या उस कुम्हार पर जिसने मुझे यह रूप प्रदान किया ?"
 शेरशाह इस पर बहुत शर्मिंदा हुए और उसने जायसी को सम्मानित करते हुए अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी।
कहा जाता है कि वह अमेठी नरेश रामसिंह के सम्मान पात्र थे। ईश्वर ने मलिक मोहम्मद जायसी को शारीरिक सुंदर प्राप्त करने में अत्यंत कृपणता की थी। परंतु हृदय की कोमलता और प्रेम - परायणता की अगाध संपत्ति देने में उतनी ही उदारता दिखाई थी।

सूफ़ी काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि समझे जाने वाले मलिक मोहम्मद 'जायसी' प्रमुख रूप से  प्रेम एवं विरह भाव की व्यंजना के लिए प्रसिद्ध है। लौकिक एवं अलौकिक प्रेम के जैसा अद्भुत सम्मिश्रण इनके काव्य में प्राप्त होता है वह अनुपम है।  इनकी उर्वरक कल्पना एवं उत्कृष्ट प्रतिभा ने अद्भुत और अत्यंत हृदयगामी काव्य की सृष्टि की है।
' पद्मावत ' काव्य की रचना ने इन्हें बहुत प्रसिद्धि दी है।

 सूफी महाकवि जायसी की निम्न रचनाएं उपलब्ध है -

1. कहरानामा -
  ' कहरानामा ' जायसी की एक प्रारंभिक रचना है जो लोकगीत के स्वरों पर आधारित है। इसका रचनाकाल 947 हिजरी माना गया है। कहरवा अवधी का एक लोकगीत है। कहरानामा मैं महरा और महढ़ी के परिणय सूत्र की कथा है जिसे जायसी ने अध्यात्मिक साधना के विचार सूत्र में अत्यंत कुशलतापूर्वक पिरोया है।

 'कहरानामा' में कवि की आध्यात्मिक दृष्टि भारतीय परंपराओं और मान्यताओं से अनुप्राणित है। इसमें महरा ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक है और महरी जीवात्मा है।  प्रणय-भाव और मिलन की उत्कंठा महरी में ही दिखाई देती है। महरी कहती है "मेरा प्रिय महरा है, मेरा गुरु गंभीर है, जो मुझे प्रभु ने दिया है। मेरा अगुआ मेरे प्रियतम का सेवक केवट है। वह मुझे सीधे मार्ग पर ले जाता है।" परमात्मा को पुरुष और जीवात्मा को नारी मानकर आध्यात्मिक प्रेम निरूपण किया पद्धति पूर्णता भारतीय है यह एक सफल रूपक कथा काल भी है

 जायसी कहते हैं कि भवसागर का अनुसरण आवश्यक है सांसारिक भौतिक वस्तुओं के लोग में नहीं पड़ना चाहिए विचारों का त्याग और ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास और अनुराग प्रेम पथ का पावन प्रयोजन है इसकी साधना में ही सच्चे जीवन की सफलता है।
 कहरानामा की रचना तारंत छंद में हुई है। कहरानामा 30 पदों की एक प्रेम कथा है।  इस रचना के प्रत्येक भाव चरण में 14 पंक्तियों पंक्तियां हैं।

 अतः जायसी रचित कहरानामा काव्य रूप की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मौलिक और ऐतिहासिक प्रयोग है। कहरानामा के काव्य रूप के संदर्भ में सूफी महाकवि जायसी हिंदी साहित्य में आषयानक नीति, कृति रूपक, कथाकाव्य और हिंदी साहित्य के प्रवर्तक और प्रथम महाकवि थे।


 2. मसलानामा
मलिक मोहम्मद जायसी की दूसरी लघु कीर्ति 'मसलामामा' है। मसलानामा में 59 अर्द्धलियां और 12 दोहे हैं। इस रचना में कवि ने अवधी भाषा में लोकोक्तियों के आधार पर अपनी अनुभूतियां, आस्थाओं और मान्यताओं के मनोहरी निरूपण किया है।
 मसलानामा मैं ईश्वर भक्ति के प्रति प्रेम का सुंदर निवेदन है इस कृति में जायसी ने पाप-पुण्य, ईश्वर-प्रेम, परोपकार मानव-स्वभाव अन्यन प्रेम साधना और भाग्यवाद आदि विविध विषयों का निरूपण इस रचना में किया है।

 काव्य रूप की दृष्टि से मसलानामा स्फुट मुक्तक काव्य-कोश है। यह कृति जन-भावना तथा जन-भाषा के प्रति जननायक जायसी के तीव्र अनुराग का सराहनीय साक्षय है। इस प्रकार मसला नामा जायसी का एक महत्वपूर्ण मौलिक और ऐतिहासिक कोश है।

3.  अखरावट  - 'अखरावट '  जायसी का सिद्धांत ग्रन्थ है।
 इसमें 54 दोहे, 54 सोरठें  और अर्द्धलियां हैं। इसमें दार्शनिक का प्रतिपादन ही कवि का प्रधान प्रयोजन है।
इस ग्रन्थ में भारतीय दर्शन  और नागपंथ के शून्य दशम द्वार, कैलाश, सोहु आदि अनेक पद मिलते हैं। इसमें सर्वत्र एक स्वस्थ साम्प्रदायिक सद्भाव के दर्शन होते हैं। जायसी की दृष्टि में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही परमपिता परमात्मा की संतानें हैं।
इस पंक्तियाँ में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है -
" तिन्ह संतति उपराजा भातहि भांती कुलीन।
हिन्दू तुरुक दु भए अपने अपने दीन।।

अखरावट रचना में काल का वर्णन नहीं किया गया है। सैयद कल्व मुस्तफा अनुसार अखरावट जायसी की अंतिम रचना है। इस में जायसी ने अपनी व्यक्तिगत भावनाओ का स्पष्टीकरण किया है। अखरावट में जुम्मा 8 जुल्काद 911 हिजरी का उल्लेख मिलता है।
इससे अखरावट की रचना  911 हिजरी के आस-पास  परमाणित होता है।

रूप शिल्प की दृष्टि से अखरावट  एक सयुंक्त मुक्तक प्रघट्टक कोश है। यह जायसी की मौलिक प्रबद्ध - प्रतिमा तथा  संवेदनशील  समन्वय भावना का परिचायक है।


4. आखिरीकलाम 

 आखिरी कलाम का अर्थ है वह कलाम या काव्य जिसमें रोजे-आखिर (अंतिम दिन या क़यामत का दिन ) का वर्णन है। कयामत का वर्णन कलाम पाक अथवा कुरान पर आधारित है।
 यह रचना 60 दोहो 420 और अर्धलियों का लघुकाय ग्रन्थ है। जायसी की जीवन-वृत्त संबंधी सूचनाओं की दृष्टि से इस रचना का विशेष महत्व है। इस ग्रंथ की रचना कवि ने 936 हिजरी में की थी, इसमें शाहे-वक़्त के रूप में मुगल शासक बाबर की स्तुति की गई है।
 'आखिरीकलाम' में कयामत का वर्णन सभी मतों की आस्था के अनुकूल है। 'जायसी' ने मसनवी शैली का वर्णन करते हुए कवि ने सर्वप्रथम ईश्वर की स्तुति की है।

पहिले नावँ दैउ कर लीन्हा । जेइ जिउ दीन्ह, बोल मुख कीन्हा ॥
दीन्हेसि सिर जो सँवारै पागा । दीन्हेसि कया जो पहिरै बागा ॥
दीन्हेसि नयन-जोति, उजियारा । दीन्हेसि देखै कहँ संसारा ॥
दीन्हेसि स्रवन बात जेहि सुनै । दीन्हेसि बुद्धि, ज्ञान बहु गुनै ॥
दीन्हेसि नासिक लीजै बासा । दीन्हेसि सुमन सुगंध-बिरासा ॥
दीन्हेसि जीभ बैन-रस भाखै । दीन्हेसि भुगुति, साध सब राखै ॥
दीन्हेसि दसन सुरंग कपोला । दीन्हेसि अधर जे रचै तँबोला ॥

दीन्हेसि बदन सुरूप रँग, दीन्हेसि माथे भाग ।
देखि दयाल, `मुहमद' सीस नाइ पद लाग ॥1॥


जायसी ने अपना आत्मपरिचय देते हुऐ अपने जन्मस्थान और अपने जन्म से 30 वर्ष-पूर्व घटित भूकंप का वर्णन किया है। उसके बाद मुहम्मद साहिब का गुणगान, बाबर की प्रशंसा, सैयद अशरफ जहांगीर की गुरु परम्परा का स्मरण, जायस नगर का वर्णन और ग्रन्थ के रचना काल का उल्लेख किया है।

पुनि जेंवन कहँ आवै लागैं । सब के आगे धरत न खाँगै ॥

भाँति भाँति कर देखब थारा । जानब ना दहुँ कौन प्रकारा ॥

पुनि फरमाउब आप गोसाईं । बहुतै दुख देखेउ दुनियाईं ॥

हाथन्ह से जेंवन मुख डारत । जीभ पसारत दाँत उघारत ॥

कूँचत खात बहुत दुख पाएउ । तहँ ऐसै जेवनार जेवाँएउँ ॥

अब जिन लौटि कस्ट जिउ करहू । सुख सवाद औ इंद्री भरहू ॥

पाँच भूत आतमा सेराई । बैठि अघाउ, उदर ना भाई ॥

ऐस करब पहुनाई, तब होइहि संतोख ।

दुखी न होहु मुहम्मद, पोखि लेहु फुर पोख ॥


आखिरीकलाम में जायसी की दार्शनिक दृष्टि प्रमुख रूप से इस्लाम की आस्थाओं के अनुरूप है। इसमें कवि ने सूफ़ी मत, नाग-पंथ और परम्परागत भारतीय विश्वाशों का भी सहद्रयतापूर्वक वर्णन किया है। काव्य दृष्टि से आखिरीकलाम हिन्दी साहित्य में जायसी का प्रथम और अच्छा प्रयास है जिसका बहुत ज्यादा ऐतिहासिक महत्व है।





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