आजादी का अमृत महोत्सव - कविता
सोचना जरुरी है
स्वतंत्रता के इस
अमृत महोत्सव पर
दिन को दिन कहूँ
रात को रात कहूँ
और मैं गलत ना कहलाऊँ
क्या ऐसा हो रहा है
सोचना जरुरी है।
आजाद मूल्क में
सांसों पे भी पहरेदारी
ना हो जाये
यह सोच घबड़ाती हूँ
आपके झूठ को
सब सच मान ले
ये आपकी
अनकही हिदायत है
मगर क्या करे
दिल है कि मानता नहीं
सच तो चुम्बक की तरह है
आप जानते ही नहीं
खिंचा चला आता ही है।
माना की
आप जो गढ़ रहे हो
कोई कहानी
कोई फसाना
या कोई छलावा
बौद्धिकता की नजर
ढूंढ ही लेती है
कितना दूध कितना पानी
पर आप तो कहते हो
सब अबुझते रहो
आँखें - कान - होंठ
सब बंद रहे...
यह सोचना जरूरी है।
मुर्ख बनने का नाटक हम करते रहें
आप की हां में हां हो
आपकी ना में ना हो
पक्ष भी आप विपक्ष भी आप
ऐसे तो ना हो पाएगा
सोचना जरुरी है
क्या मैं आजाद मुल्क में हूं।
आपकी इच्छा सर्वोपरि है
चाहे तो इतिहास बदलना पड़े
या भूगोल
पर जार कोई भी हो
भूगोल भले ही बदल जाता है
पर इतिहास
कभी किसी का नहीं बदलता
ना आपका ना हमारा
ना समाज का ना राष्ट्र का
ज्यों लिखी रेखा हाथ की जैसे
कोशिशें भले चलती रहे....
कोशिशें भले चलती रहें
हर कारवां का सफर खत्म होता ही है
कभी हमारा तो कभी आपका
मुगलों का दिन गया
अंग्रेजों का दिन गया
आपका भी जायेगा
हमारा भी जायेगा
वक्त की मार बड़ी कठोर होती है
क्या राजा क्या रंक....
गलत राह हो तो
लोहे में भी जंग लग ही जाता है।
अमृत मंथन से अमृत ही नहीं
विष भी बाहर आता है
विष हमारे हिस्से
और अमृत आपके हिस्से
अंधा कानून है
या अंधी सियासत
हम अनदेखा करें
या आँखें बंद करें
सच तो बंद पलकों में भी
आ ही जाता है
क्या हम आजाद हैं
सोचना जरुरी है .....
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