हम रोज कसम खाते हैं
हम रोज खुद को मनाते हैं हम तुम्हें भूल जाएंगे
पर तुम्हारे मन की बात
हमें भूलने नहीं देती......
हम कैसे मूढ़ थे
तुम्हारी लच्छेदार बातों
तुम्हारे सुनहरे दिन के सपने
दिखाने के झांसे में हम आ गए.....
अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीज
अपना सबसे कीमती हथियार
लोकतंत्र का उपहार
सालों में मिलता है एक बार
एक भूल पे खर्च कर आ गये
पढ़ें लिखें मुर्ख की ये हालत है तो
अनपढ़ मुर्ख क्या-क्या कर आये होंगे.....
हम आज फिर से कसम खाते हैं
जहां मक्खन ज्यादा होगा
हम वहां ना जाएंगे.....
प्याज रोटी पर भी जब आफत होगी
बिन इलाज - बिन जल मछली जैसे
हम तो मर जाएंगे
क्या घाट क्या शमशान
जगह कहां हमें मिल पाएगी....
पंद्रह लाख टके का सवाल है
लाख रुपए की सूट है
फिर भी चाय की दुकान है
आत्मनिर्भर तो पकौड़ी की फरमाइश है....
पीर पराई वो क्या जाने
आंसू की गंगा जमुना बहा आतें हैं
बार-बार एक ही चूल्हे पर
अपनी रोटी सेक आते हैं
जला किसी का पेट
जला किसी की चिता
कोई कैसे बताएं
उनका कहा-अनकहा दर्द....
माना कि
हम थोड़े दिल के साफ हैं
माना कि हम थोड़े गँवार हैं
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई
पेट से सीख ना आए हैं
मां ने बताया नहीं
हिंदू कौन-मुस्लिम कौन
सिख कौन -ईसाई कौन
कौन खराब कौन अच्छा
हम सब तो भारतवासी हैं
फिर क्यों
कोई बताएं हमें
क्या धर्म क्या जात हमारी.....
मंदिर मस्जिद का कैसा यह खेला है
मां दुर्गा के शब्द हैं
सब संतान हमारी है
बोले राम जी -
जी घुटता है यहां....
सोने के 'प्रसाद' में
प्रेम कहां टिकता है
चलो चले फिर से
बनवास की ओर
एक कुटिया बनाएंगे
शबरी के जूठे बेर खाएंगे....
पर जंगल सारे कटे पड़े हैं
कारखाने सारे खड़े हो गये हैं
अब कौन वनवासी
अब कौन आदिवासी
मिट्टी-हवा-पानी
सब की दुकान सजी है
तुम खरीदो हम बेचेंगे
बस यही फरमान खड़ी है....
~रश्मि
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