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30-4-20 यादें

आज मन उदास है, क्यों पता नहीं.... बेवजह यूँ ही...
जींदगी मे सबकुछ बेवजह तो नहीं होता। हर बात हर लफ्ज हर चुनाव हर फैसला बिना वजह तो नहीं होता। फिर ये उदासी क्यों बेवजह चली आयी है। एक उब एक उदिघ्नता हर तरफ क्यों विद्ममान हो जाती है।  महानगर की आवोहवा ही थोड़ी अलग सी है, शायद इसलिए.... 

 क्यों नहीं दिखता यहाँ अपने गांव जैसी  सुर्यास्त  की लालिमा या फिर घर की ओर लौट रहे पक्षियों का झुंड। महानगर की उँची उँची फ्लैटों में संगीत सा क्यों नहीं लगता पक्षियों का कलरव। 
दुर से बजती मंदिर की घंटी या अजान की  मध्यम आवाज यहाँ क्यों नहीं सुनाई देती। जैसे गाँवों के घर - कमरे - छत - खिडकियों से आती थी। 
बचपन के दिन, स्कूल के दिन और छुट्टियों मे आम के बगीचे अब क्यों नहीं हैं। गाँव के घर और द्वार के कुर्सी पे बैठे दादाजी कुछ पढ़ते - कुछ डायरी में लिखते अब क्यों नहीं नजर आते। क्यों तुलसी चौड़े के पास दीपक जलाकर हम बहनों से रामायण पाठ का वाचन करवाते नजर नहीं आते। 

अब कौई कहता नहीं सुबह उठने के बाद कैसे हम दिखते हैं। पर दादा जी गुस्से से कहते थे- मेरे सामने ऐसे मत आया करो... अच्छे कपड़े, अच्छे से बालों मे कंघी कर और सज - सँवर आया करो। किस्से सुनाया करते थे बंगाली महिलाओं की, वो हमेशा सजी सँवरी रहती है, उनके समय पे काम करने के तरीके आदि। गोरी मैम की बात करते थे उनके रहने के ढंग , सलीके की बात करते थे। हम सब बहनें  दादाजी के डर से उनके सामने अच्छे से तैयार होकर जाती थी।

पर अब गाँव है.. गाँव का वो घर भी है लेकिन वो घर जैसा नहीं लगता बस पुरानी हवेली सी लगती है जिसमें  कभी जमींदारी की ठनक हुआ करती थी। कभी कहा नहीं किसी से पर आप बहुत याद आते हैं दादाजी...... 

आँखें बंद कर याद करती हुँ तो गोधुलि की बेला, कुर्सी पे बैठे दादाजी और उनके हाथों में कलम - डायरी और किताबें सुधा, कल्याण और भी पता नहीं कितनी सारी किताबें... और रेडियो पे चलता समाचार..... बरामदे के नीचे बैठे हाथ जोड़े कामगार..... और हम सारे बच्चे उनके आस-पास कुछ खड़े - कुछ बैठे उनकी बातें सुनते रहते। 
सौचती हुँ पेड़ों पे नये पत्ते आने से पुराने पत्ते क्यों टूट जाते हैं....... क्रमश...


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2 Comments

  1. सच में दुरा पे बैठे दादा जी आंखों के सामने आ गए।

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    1. धन्यवाद.... दादा जी को याद करे तो यही चित्र मानसपटल पे आ ही जाता है।

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