इतनी सी इल्तिज़ा है ( कविता )
तुम्हारी बहुत जरुरत है
पर ना वक्त का तकाजा है
ना उम्मीद का कोई तिनका
ना ही कोई इल्तिज़ा
इसलिए रो लेते हैं
चुपके से किसी कोने
किसी सिरहाने में....
पर कहूँ मैं हाल
अपने दिल की
कैसे और किससे
दिल तो इतनी बार टुटा
की दिल की सिलाई करते-करते
रूह उधरते गये
की दिल क्यूँ है
इस रूह में
इसका ही अफसोस है...
कमजोरी तो हमारी ही है
सबको अपना सा समझा
वफ़ा-ए-'इश्क़
सबके वश की बात नहीं होती
रिश्तों में शफफ रखना
सबके कुव्वत में नहीं होती....
कभी-कभी यूँ लगता है
तुमसे कुछ कहूँ
पर तुम तो मेरे कुछ नहीं
ये कुछ नहीं
बहुत कुछ है
या खालीपन है...
पर यह ख्याल काफी है
की तुम हो
कहीं ना कहीं तो
कभी ख्यालों में
कभी सपने में...
पर आना जरूर
ऐ मुसाफिर
उस सफर पे
मिलने अंतिम बार
जब साँसे छूट रही हो
या छूट चुकी हो
इतनी सी इल्तिज़ा है....
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