मोहब्बत कम ना थी (कविता )
मगर कहीं तुम ना थे
मगर कहीं हम ना थे
वो वक्त कभी कम ना था
मगर जींदगी का फलसफा मात खा सा गया...
आज मुकद्दर की बात यह है कि
आज तुझसे रूबरू हूँ जरूर
हर जगह तुम हो
हर जगह मैं हूँ
मगर अल्फाज़ इस कदर
कैद है अपने मैयखाने में कि
ना रूह कुछ कहती है
ना जुबां कुछ कहती है.....
सब तरफ खामोशी है
इस कदर कि दरियाँ में
मेरे डूब जाने कि खबर मुझको भी नहीं
अब तु ही बता
मेरी क्या रजा होगी
तु चल मैं आया
क्या यही कहानी होगी....
सर से पाँव तक डुबे पड़े हैं
आज मोहब्बत कि दास्तान
खुद सांस लूँ या तुझे सांस दूँ
सवाल जेहन में बंद से हो गये हैं....
रफ्ता-रफ्ता जींदगी चल तो रही है
मगर क्या यही जींदगी है
समुन्दर से पूछूँ या लहरों संग बह जाऊं
और कहूँ
इस कदर तुमसे मोहब्बत कम ना थी......
~रश्मि
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